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ग़ज़ल
बर्ग-ए-गुल पर रख गई शबनम का मोती बाद-ए-सुब्ह
और चमकाती है उस मोती को सूरज की किरन
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
किरन किरन अलसाता सूरज पलक पलक खुलती नींदें
धीमे धीमे बिखर रहा है ज़र्रा ज़र्रा जाने कौन
निदा फ़ाज़ली
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
महरम है हबाब-ए-आब-ए-रवाँ सूरज की किरन है उस पे लिपट
जाली की कुर्ती है वो बला गोटे की धनक फिर वैसी ही
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
किसी के हुस्न की बस इक किरन ही काफ़ी है
ये लोग क्यूँ मिरे आगे हैं शम्अ' लाए हुए