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ग़ज़ल
है नाज़-ए-मुफ़्लिसाँ ज़र-ए-अज़-दस्त-रफ़्ता पर
हूँ गुल-फ़रोश-ए-शोख़ी-ए-दाग़-ए-कोहन हुनूज़
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
सज्दों की रस्म-ए-कोहन को होश गँवा के भूल जा
संग-ए-दर-ए-हबीब पर सर को झुका के भूल जा
ख़ुमार बाराबंकवी
ग़ज़ल
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइ'ज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
गर शाख़-ए-ज़ाफ़राँ उसे कहिए तो है रवा
है फ़रह-बख़्श वाक़ई इस हद कोहाँ बसंत
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
मैं अपने सूरज के साथ ज़िंदा रहूँगा तो ये ख़बर मिलेगी
गुलाब किस शाख़ पर खिलेगा चराग़ की लौ कहाँ रुकेगी