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ग़ज़ल
मगर लिखवाए कोई उस को ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुब्ह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हज़ारों उलझनें है इस दिल-ए-ख़ुद्दार के आगे
मगर ये हार जाता है तिरे इसरार के आगे
राजकुमार कोरी राज़
ग़ज़ल
दर-हक़ीक़त है ये साज़िश हादिसा कहने को है
अब हमारे पास क्या इस के सिवा कहने को है