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ग़ज़ल
सर-ए-खुसरव से नाज़-ए-कज-कुलाही छिन भी जाता है
कुलाह-ए-ख़ुसरवी से बू-ए-सुल्तानी नहीं जाती
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
कहूँ किस से रात का माजरा नए मंज़रों पे निगाह थी
न किसी का दामन-ए-चाक था न किसी की तर्फ़-ए-कुलाह थी
अहमद मुश्ताक़
ग़ज़ल
हुजूम-ए-दहर में बदली न हम से वज़-ए-ख़िराम
गिरी कुलाह हम अपने ही बाँकपन में रहे
मजरूह सुल्तानपुरी
ग़ज़ल
बचाते फिरते आख़िर कब तलक दस्त-ए-अज़ीज़ाँ से
उन्हीं को सौंप कर हम तो कुलाह-ए-नाम-ओ-नंग आए