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ग़ज़ल
इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
तबीअत इन दिनों बेगाना-ए-ग़म होती जाती है
मिरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है
जिगर मुरादाबादी
ग़ज़ल
क्या त'अज्जुब कि मिरी रूह-ए-रवाँ तक पहुँचे
पहले कोई मिरे नग़्मों की ज़बाँ तक पहुँचे