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ग़ज़ल
मशअल-ए-माज़ी दिखा सकती है मुस्तक़बिल की राह
है ये कुंजी जिस से सारे क़ुफ़्ल खोले जाएँगे
आदित्य पंत नाक़िद
ग़ज़ल
वजूद-ए-दिल के दरवाज़ों की कुंजी कौन रखता है
फ़क़ीरों के बराबर गंज-ए-मख़्फ़ी कौन रखता है
काविश बद्री
ग़ज़ल
बन गई कुंजी ज़मीन-ए-शेर-ए-ग़ालिब क्या कहूँ
या'नी 'माहिर' आज ये क़ुफ़्ल-ए-सुकूत आख़र खुला
माहिर आरवी
ग़ज़ल
कभी तो सुब्ह तिरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-बार चले
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
बात ये है कि सुकून-ए-दिल-ए-वहशी का मक़ाम
कुंज-ए-ज़िंदाँ भी नहीं वुसअ'त-ए-सहरा भी नहीं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
चिड़ियों की चहकार में गूँजे राधा मोहन अली अली
मुर्ग़े की आवाज़ से बजती घर की कुंडी जैसी माँ
निदा फ़ाज़ली
ग़ज़ल
अभी कुछ अन-कहे अल्फ़ाज़ भी हैं कुंज-ए-मिज़्गाँ में
अगर तुम इस तरफ़ आओ सबा-रफ़्तार हो जाना
अदा जाफ़री
ग़ज़ल
तुम को ऐ आँखो कहाँ रखता मैं कुंज-ए-ख़्वाब में
हुस्न था और हुस्न तन्हा देखने की चीज़ थी