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ग़ज़ल
'जौहर' और हाजिब ओ दरबाँ की ख़ुशामद क्या ख़ूब
अर्श ओ कुर्सी पे गुज़र है तिरे दरबारी का
मौलाना मोहम्मद अली जौहर
ग़ज़ल
शाम ढले इक लॉन में सारे बैठ के चाय पीते थे
मेज़ हमारा घर का था कुर्सी सरकारी होती थी
जानाँ मलिक
ग़ज़ल
ये क्या कम है कि हक़्क़-ए-ख़ुद-परस्ती छोड़ देता हूँ
तुम्हारा नाम आता है तो कुर्सी छोड़ देता हूँ
अहमद कमाल परवाज़ी
ग़ज़ल
फिर उजली कुर्सी पर बैठें मुल्ज़िम का इंसाफ़ करें
पहले मुंसिफ़ गंगा-जल से अपनी निय्यत साफ़ करें
सरदार पंछी
ग़ज़ल
ख़ुद को नतशा-ज़ादा कहता पर सोने से पहले
अंग्रेज़ी में कुर्सी पढ़ कर ख़ुद पर दम करता था
ओसामा ज़ाकिर
ग़ज़ल
बजट जब सारे लग जाएँ वज़ारत की ही कुर्सी पर
तो इस तर्ज़-ए-मईशत को गिरानी कौन कहता है
सबीला इनाम सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
अर्श ओ कुर्सी हूर ओ ग़िल्माँ और मलाएक ख़ास ओ आम
आलम-ए-बाला के सब बाशिंदगाँ को इश्क़ है