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ग़ज़ल
लगते होंगे पुर-कशिश अर्ज़-ओ-समा मिलते हुए
नीले कुर्ते पर तिरे ये शाल धानी और है
प्रियंवदा इल्हान
ग़ज़ल
मुहम्मद तौसीफ़
ग़ज़ल
रात भर कुर्ते के घेरे पे गिरा ख़ून-ए-जिगर
दास्ताँ फिर से तिरी दीदा-ए-तर लिक्खी है
मुसर्रत जबीं ज़ेबा
ग़ज़ल
मोहब्बत का ये पहनावा हमारे तन पे सजना है
हम इस कुर्ते की कफ़ से फ़ालतू धागा निकालेंगे
फ़ैसल ख़य्याम
ग़ज़ल
करते हैं जिस पे ता'न कोई जुर्म तो नहीं
शौक़-ए-फ़ुज़ूल ओ उल्फ़त-ए-नाकाम ही तो है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
आगे उस मुतकब्बिर के हम ख़ुदा ख़ुदा किया करते हैं
कब मौजूद ख़ुदा को वो मग़रूर-ए-ख़ुद-आरा जाने है