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ग़ज़ल
हमारी सैर को गुलशन से कू-ए-यार बेहतर था
नफ़ीर-ए-बुलबुलों से नाला-हा-ए-ज़ार बेहतर था
शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम
ग़ज़ल
कशाँ कशाँ लिए जाता है कू-ए-यार मुझे
मैं क्या करूँ नहीं दिल पर जो इख़्तियार मुझे
हंस राज सचदेव 'हज़ीं'
ग़ज़ल
वो कू-ए-यार को जाते हैं बे-नियाज़ नहीं
हैं संग-ए-दिल ही वहाँ कोई दिल-नवाज़ नहीं