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ग़ज़ल
लड़ते लड़ते आख़िर इक दिन पंछी की ही जीत हुई
प्राण पखेरू ने तन छोड़ा ख़ाली पिंजरा छूट गया
दीप्ति मिश्रा
ग़ज़ल
पुर्वाई से लड़ते कितने वरक़ पुरानी यादों के
सौग़ातों के संदूक़ों को धूप दिखाती दो-पहरें
इशरत आफ़रीं
ग़ज़ल
लड़ते भी हैं तो प्यार से मुँह मोड़ते नहीं
हम से कहीं ज़ियादा तो बच्चों में अक़्ल है