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ग़ज़ल
कश्मीर सी जागह में ना-शुक्र न रह ज़ाहिद
जन्नत में तू ऐ गीदी मारे है ये क्यूँ लातें
मोहम्मद रफ़ी सौदा
ग़ज़ल
रंग के पहरे हैं रुख़्सारों की आब-ओ-ताब पर
और रंगों को हैं ज़ुल्फ़ों की लटें जकड़े हुए
अमीक़ हनफ़ी
ग़ज़ल
उसे बोसे हमें लातें उसे वा'दे हमें घातें
ये कैसे गुल खिलाते हो ख़ुदा ग़ारत करे तुम को
अनवर शैख़
ग़ज़ल
रहें सोने में लटें ज़ुल्फ़ों की यूँही रुख़ पर
न हटाए न छुए ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ कोई
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
पिछले पहर जो हुस्न के रुख़ से हटें ख़ुनुक लटें
जाग उठा नया फ़ुसूँ चश्म-ए-फुसूँ-तराज़ में