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ग़ज़ल
फ़ना तालीम-ए-दर्स-ए-बे-ख़ुदी हूँ उस ज़माने से
कि मजनूँ लाम अलिफ़ लिखता था दीवार-ए-दबिस्ताँ पर
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
फ़े पे इक नुक़्ता है और क़ाफ़ पे हैं नुक़्ता दो
काफ़ भी ख़ाली है और लाम भी ख़ाली, ये ले
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
कहता है कोई जीम कोई लाम ज़ुल्फ़ को
कहता हूँ मैं 'ज़फ़र' कि मुसत्तह है काफ़-ए-ज़ुल्फ़
बहादुर शाह ज़फ़र
ग़ज़ल
वुफ़ूर-ए-शौक़ मेरा माने-ए-दीदार था वर्ना
झलक थी ख़ुद-नुमाई की सदा-ए-लन-तरानी में
अब्बास अली ख़ान बेखुद
ग़ज़ल
हल्क़ा-ए-ज़ुल्फ़-ए-बुताँ में है भरी निकहत-ए-गुल
ऐ दिल इस लाम में बू-ए-गुल-ए-इस्लाम नहीं
अमानत लखनवी
ग़ज़ल
मर रहे थे रफ़्ता रफ़्ता मेरे सब महसूर दोस्त
और मैं मस्जिद में रब्ब-ए-लम-यज़ल कहता रहा