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ग़ज़ल
गर अर्ज़-ओ-समा की महफ़िल में लौलाक-लमा का शोर न हो
ये रंग न हो गुलज़ारों में ये नूर न हो सय्यारों में
ज़फ़र अली ख़ाँ
ग़ज़ल
जो कोई पूछे जान-ए-मन शोख़ी ओ जल्वा किस तरह
लम्अ-ए-बर्क़ की तरह एक झमक दिखा कि यूँ
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
अपने दाता की हक़ीक़त के हैं जल्वा तुम में
लमआ-ए-नूर-ए-तजल्ली की क़सम या माबूद
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
अक्स-ए-रू-ए-शम्अ-रू है मेरे दिल में जा-गुज़ीं
दिल मिरा इस आतिश-ए-लम'आ-फ़गन में मस्त है
बहराम जी
ग़ज़ल
क्या क्या फ़ित्ने सर पर उस के लाता है माशूक़ अपना
जिस बे-दिल बे-ताब-ओ-तवाँ को इश्क़ का मारा जाने है
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
साअद-ए-सीमीं दोनों उस के हाथ में ला कर छोड़ दिए
भूले उस के क़ौल-ओ-क़सम पर हाए ख़याल-ए-ख़ाम किया