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ग़ज़ल
रहेगी दास्ताँ बाक़ी है जब तक ये जहाँ बाक़ी
कहीं बाक़ी हैं क़िस्सा-गो कहीं हैं राज़-दाँ बाक़ी
रुख़्साना निकहत लारी उम्म-ए-हानी
ग़ज़ल
रुख़्साना निकहत लारी उम्म-ए-हानी
ग़ज़ल
बहुत ही पहले कभी हम ने यहाँ खे़मे लगाए थे
इसी मिट्टी से फिर मानूस से रिश्ते बनाए थे
रुख़्साना निकहत लारी उम्म-ए-हानी
ग़ज़ल
हज़ारों ग़म हैं लेकिन बार-ए-ग़म दिल पर न रक्खूँगा
ये नाज़ुक आबगीना उस पे मैं पत्थर न रक्खूँगा
जुनैद हज़ीं लारी
ग़ज़ल
दिलों में जब गुमाँ होंगे मकीं आहिस्ता आहिस्ता
तो धुँदला जाएगा नूर-ए-यकीं आहिस्ता आहिस्ता
रुख़्साना निकहत लारी उम्म-ए-हानी
ग़ज़ल
क्या 'अजब फ़र्त-ए-ख़ुशी से है जो गिर्यां आदमी
कसरत-ए-ग़म में नज़र आता है ख़ंदाँ आदमी