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ग़ज़ल
बर्ग-ए-गुल लाई सबा क़ब्र पे मेरी न नसीम
फिर गई ऐसी ज़माने की हुआ मेरे बा'द
मुनव्वर ख़ान ग़ाफ़िल
ग़ज़ल
मोहब्बत दिल में दुश्मन की भी अपना रंग लाती है
वो कितने बे-मुरव्वत हों मुरव्वत आ ही जाती है
ज़हीर देहलवी
ग़ज़ल
दोनों में कितना फ़र्क़ मगर दोनों का हासिल तन्हाई
अपनों में दूरी लाती है वो शोहरत हो या रुस्वाई
दीप्ति मिश्रा
ग़ज़ल
लब-ए-नाज़ुक के बोसे लूँ तो मिस्सी मुँह बनाती है
कफ़-ए-पा को अगर चूमूँ तो मेहंदी रंग लाती है
आसी ग़ाज़ीपुरी
ग़ज़ल
खींच लाती है उसी कूचे में फिर आवारगी
रोज़ जिस कूचे से अपने शहर को जाता हूँ मैं
ग़ुलाम हुसैन साजिद
ग़ज़ल
ये मौसम है बाज़ारों का कि रौनक़ खींच लाती है
हमारी जेब ख़ाली कर दिवाली तुम मनाती हो