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ग़ज़ल
नहीं हवा में ये बू नाफ़ा-ए-ख़ुतन की सी
लपट है ये तो किसी ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन की सी
नज़ीर अकबराबादी
ग़ज़ल
आती लपट है जैसी उस ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं से
क्या ताब है जो वो बू मुश्क-ए-ख़ुतन से निकले
रजब अली बेग सुरूर
ग़ज़ल
नशेमन फूँक कर ख़ुश हैं चराग़ाँ देखने वाले
लपट में आह-ए-सोज़ाँ की गुलिस्ताँ देखने वाले