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ग़ज़ल
पाँव मेरा कल्बा-ए-अहज़ाँ में अब रहता नहीं
रफ़्ता रफ़्ता उस तरफ़ जाने की मुझ को लत हुई
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
रात भी काली चादर ओढ़े आ पहुँची है ज़ीने में
मेहंदी लगाए बैठी सोचे लट उलझी सुलझाए कौन
किश्वर नाहीद
ग़ज़ल
काली घटाएँ बाग़ में झूले धानी दुपट्टे लट झटकाए
मुझ पे ये क़दग़न आप न आएँ उफ़ री जवानी हाए ज़माने
शाद अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
ज़हे सोज़-ए-ग़म-ए-आदम ख़ुशा साज़-ए-दिल-ए-आदम
इसी इक शम्अ' की लौ ने जहान-ए-तीरगी बदला