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ग़ज़ल
'ज़हरा-ज़ैदी' आप उसे आख़िर क्यूँ मान नहीं लेतीं
इश्क़ तो रहमत है और रहमत कब ख़ैरात में होती है
उरूज ज़ेहरा ज़ैदी
ग़ज़ल
ये तन्हाई का मौसम भी दबे पाँव गुज़र जाता
अगर यादें किसी की बाँट लेतीं तल्ख़ियाँ मुझ से
ख़ालिद रहीम
ग़ज़ल
रोक लेतीं हम को क्या दीवार की संगीनियाँ
कुछ अदब ज़िंदाँ का है कुछ अज़्मत-ए-ज़ंजीर है
मुनीर भोपाली
ग़ज़ल
रहबरी के पर्दे में ख़ुद-नुमाई होती है
और कर भी क्या लेतीं ये ख़ुदी की तस्वीरें
उस्ताद अज़मत हुसैन ख़ाँ
ग़ज़ल
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले