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ग़ज़ल
हज़ार शाख़ें अदा से लचकीं हुआ न तेरा सा लोच पैदा
शफ़क़ ने कितने ही रंग बदले मिला न रंग-ए-शबाब तेरा
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
मुनासिब दाम लग जाएँ तो ख़ूबान-ए-परी-चेहरा
बदन के लोच और ज़ुल्फ़ों के ख़म तक बेच देते हैं
मैकश बदायुनी
ग़ज़ल
है ये आश्नाई अगली न शनाख़्त इक दो दिन की
जो है दिल-दही की मर्ज़ी तो है लोच फिर ये कैसा