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ग़ज़ल
लुत्फ़-अंदोज़-ए-रियाज़-ए-दहर क्यूँ होते नहीं
दावरा कम-ज़र्फ़ होते हैं तिरे मरताज़ क्यूँ
कृष्ण मोहन
ग़ज़ल
मय-ए-नौ से हो वो क्या लुत्फ़-अंदोज़
शराब-ए-कोहना जो पीता रहा है
नवाब सय्यद हकीम अहमद नक़्बी बदायूनी
ग़ज़ल
था हरम की सरज़मीं पर लुत्फ़-अंदोज़-ए-सुजूद
या'नी का'बे को तुम्हारा आस्ताँ समझा था मैं
शकील बदायूनी
ग़ज़ल
जो दर्द-ए-ज़ख़्म बढ़ता है तो लुत्फ़-अंदोज़ होता हूँ
मिरी सब राहतें उस की नमक-दानी में रहती हैं
आशू मिश्रा
ग़ज़ल
कौन कहता है कि महरूम-ए-करम हैं हम लोग
लुत्फ़-अंदोज़-ए-जफ़ा महव-ए-सितम हैं हम लोग
नुद्रत कानपुरी
ग़ज़ल
तिरे नफ़स की हरारत हुई नज़र-अंदाज़
तिरे लिबास की भीनी महक से लुत्फ़ लिया
सय्यद ज़ामिन अब्बास काज़मी
ग़ज़ल
लुत्फ़ आता है उन्हें हर ज़ुल्म-ए-नौ-ईजाद में
चैन आता है मुझे दर्द-ए-दिल-ए-नाशाद में
ज़ैनब बेगम इबरत
ग़ज़ल
कुछ हौसला बढ़ाता अंदाज़-ए-लुत्फ़-ए-जानाँ
कुछ दग़दग़ा सा होता कुछ कुछ उमीद होती