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ग़ज़ल
कहीं तो लुटना है फिर नक़्द-ए-जाँ बचाना क्या
अब आ गए हैं तो मक़्तल से बच के जाना क्या
इरफ़ान सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
न लुटना मेरी क़िस्मत ही में था लिक्खा हुआ वर्ना
अँधेरी रात थी और बीच रस्ते में खड़ा था मैं
अनवर शऊर
ग़ज़ल
दिलों में आग नहीं आँख में शरारा नहीं
ये कैसे लोग हैं लुटना जिन्हें गवारा नहीं
मुशताक़ अहमद मुशताक़
ग़ज़ल
हाल-ए-दिल किस को सुनाएँ जाएँ किस के पास हम
ख़ुद को लूटा है हमी ने अपनी पहरे-दारी में
मंसूर महबूब
ग़ज़ल
कहीं तो लुटना है फिर नक़्द-ए-जाँ बचाना क्या
अब आ गए हैं तो मक़्तल से बच के जाना क्या
इरफ़ान सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
हमें नायाफ़्त लम्हों से मफ़र होता न घर लुटता
कि पहली बर्फ़-बारी में कहाँ ज़ाद-ए-सफ़र लुटता