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ग़ज़ल
'फ़ैज़' दिलों के भाग में है घर भरना भी लुट जाना भी
तुम इस हुस्न के लुत्फ़-ओ-करम पर कितने दिन इतराओगे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
फ़ना निज़ामी कानपुरी
ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
तू लूट कर भी अहल-ए-तमन्ना को ख़ुश नहीं
याँ लुट के भी वफ़ा के इन्ही क़ाफ़िलों में हूँ
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
फ़ना बुलंदशहरी
ग़ज़ल
अज्ञात
ग़ज़ल
इस हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़ पे लुट कर भी शाद हूँ
तेरी रज़ा जो थी वो तक़ाज़ा वफ़ा का था