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ग़ज़ल
आख़िर कोई पढ़ ही लेगा रुस्वाई की तहरीरें
ये मेरे चेहरे की लकीरें कुछ जीतें कुछ मातें हैं
शहज़ाद अहमद
ग़ज़ल
वो तो शह हैं वो तो सब कुछ ख़रीद लेंगे
सोच रही हूँ उन की फिर क्यों मातें होंगी
डॉ अंजना सिंह सेंगर
ग़ज़ल
अब इस को कुफ़्र मानें या बुलंदी-ए-नज़र जानें
ख़ुदा-ए-दो-जहाँ को दे के हम इंसान लेते हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी
ग़ज़ल
पुरनम इलाहाबादी
ग़ज़ल
ये अजब क़यामतें हैं तिरे रहगुज़र में गुज़राँ
न हुआ कि मर मिटें हम न हुआ कि जी उठें हम