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ग़ज़ल
जज़्र-ओ-मद हुस्न के दरिया में नज़र आता है
क़ाबिल-ए-दीद है आलम तिरी अंगड़ाई का
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
ग़ज़ल
इक जज़्र-ओ-मद का आलम भी वाबस्ता-ए-क़िस्मत होता है
इंसान वहीं कुछ पाता है एहसास जहाँ तड़पाते हैं
शैख़ हसन मुश्किल अफ़कारी
ग़ज़ल
म्यान से तेरा अगर ख़ंजर निकल कर रह गया
मेरे भी दिल में बड़ा अरमाँ सितमगर रह गया
मिर्ज़ा अल्ताफ़ हुसैन आलिम लखनवी
ग़ज़ल
मु'आफ़ कर मिरी मस्ती ख़ुदा-ए-अज़्ज़ा-व-जल
कि मेरे हाथ में साग़र है मेरे लब पे ग़ज़ल
अहमद फ़राज़
ग़ज़ल
समझता है वो ख़ुद को आप के रुख़ के मुक़ाबिल का
ज़रा इंसाफ़ से कहिए ये मुँह है माह-ए-कामिल का
फ़ज़ल हुसैन साबिर
ग़ज़ल
हक़ीक़त में मजाज़ी इश्क़ का यूँ रंग भरता हूँ
ख़ुदा का नाम ले ले कर बुतों की चाह करता हूँ
हामिद हुसैन हामिद
ग़ज़ल
अल्ताफ़ फ़र्ज़ है सितम-ए-ना-रवा के बाद
मेहर-ओ-वफ़ा भी चाहिए जौर-ओ-जफ़ा के बाद