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ग़ज़ल
दाग़ देहलवी
ग़ज़ल
उगा है घर में हर सू सब्ज़ा वीरानी तमाशा कर
मदार अब खोदने पर घास के है मेरे दरबाँ का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
वतन की ख़ाक से मर कर भी हम को उन्स बाक़ी है
मज़ा दामान-ए-मादर का है इस मिट्टी के दामन में
चकबस्त बृज नारायण
ग़ज़ल
अज़ल से हक़-परस्ती बुत-परस्ती सुनते आते हैं
मगर ये आप का मशरब निराला ख़ुद-परस्ती है