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ग़ज़ल
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
समझे हैं अहल-ए-शर्क़ को शायद क़रीब-ए-मर्ग
मग़रिब के यूँ हैं जम्अ' ये ज़ाग़ ओ ज़ग़न तमाम
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
बहुत देखे हैं मैं ने मशरिक़ ओ मग़रिब के मय-ख़ाने
यहाँ साक़ी नहीं पैदा वहाँ बे-ज़ौक़ है सहबा
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
हर गोशा-ए-मग़रिब में हर ख़ित्ता-ए-मशरिक़ में
तशरीह दिगर-गूँ है अब तेरे पयामों की
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
ज़रा वक़्फ़ा से निकलेगा मगर निकलेगा चाँद आख़िर
कि सूरज भी तो मग़रिब में छुपा आहिस्ता आहिस्ता
अहमद नदीम क़ासमी
ग़ज़ल
मशरिक़ पे भी नज़रें हैं मग़रिब पे भी नज़रें हैं
ज़ालिम के तख़य्युल की लम्बान अरे तौबा
शौक़ बहराइची
ग़ज़ल
खुल गया मुसहफ़-ए-रुख़्सार-ए-बुतान-ए-मग़रिब
हो गए शैख़ भी हाज़िर नई तफ़्सीर के साथ