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ग़ज़ल
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
रह गया 'मुश्ताक़' दिल में रंग-ए-याद-ए-रफ़्तगाँ
फूल महँगे हो गए क़ब्रें पुरानी हो गईं
अहमद मुश्ताक़
ग़ज़ल
महँगे इंजेक्शन दवा की गोलियाँ और बोतलें
मुख़्तसर सा ज़ख़्म दो दिन की दिहाड़ी ले गया
दीदार बस्तवी
ग़ज़ल
ज़माने ने अज़ल से ही ये अपनी रीत है रक्खी
जो सस्ता कुछ मयस्सर हो तो महँगे भूल जाते हैं
नासिर मारूफ़
ग़ज़ल
देखने वाले माल-ओ-ज़र क्या जान लुटाया करते थे
ख़द्द-ओ-ख़ाल बदन के कितने महँगे थे ख़रचीले थे