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ग़ज़ल
जज़्ब-ए-इश्क़ जिधर चाहे ले जाए है महमिल लैला का
यानी हाथ में मजनूँ के नाक़े की उस के महार है आज
मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल
मगर लिखवाए कोई उस को ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुब्ह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
है किस के दस्त-ए-करम में महार-ए-नाक़ा-ए-जाँ
सफ़र का लुत्फ़ ग़म-ए-हम-सफ़र ने छीन लिया