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ग़ज़ल
रखते हो तुम क़दम मिरी आँखों से क्यूँ दरेग़
रुत्बे में महर-ओ-माह से कम-तर नहीं हूँ मैं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हँसती आँखें लहू रुलाएँ खिलते गुल चेहरे मुरझाएँ
क्या पाएँ बे-महर हवाएँ दिल धागे उलझा देने से
जलील ’आली’
ग़ज़ल
यारो कुछ तो ज़िक्र करो तुम उस की क़यामत बाँहों का
वो जो सिमटते होंगे उन में वो तो मर जाते होंगे
जौन एलिया
ग़ज़ल
महर ओ मह उस की फबन देख के हैरान रहे
जब वरक़ यार की तस्वीर-ए-दो-रू का निकला
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
जब महर नुमायाँ हुआ सब छुप गए तारे
तू मुझ को भरी बज़्म में तन्हा नज़र आया
ख़्वाजा अज़ीज़ुल हसन मज्ज़ूब
ग़ज़ल
दुख हद से जो गुज़रा तो खुला दिल पे कि यूँ भी
दर-पर्दा है जो महव-ए-मुदारात वो तुम हो