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ग़ज़ल
माह-ओ-अंजुम की ज़िया भी हो मुक़द्दर उस का
ज़ीस्त में जिस ने मिरी आज अंधेरा रक्खा
तरन्नुम शब्बीर
ग़ज़ल
नरेश एम. ए
ग़ज़ल
बे-जान से भी होते हैं वो महव-ए-गुफ़्तुगू
क्या जाने मुझ से क्यों वो मगर बोलते नहीं
औलाद-ए-रसूल क़ुद्सी
ग़ज़ल
ज़ब्त इतना कि चराग़ों से हुए महव-ए-कलाम
याद इतनी कि तुझे दिल से उतरने न दिया
अशहद बिलाल इब्न-ए-चमन
ग़ज़ल
सब रक़ीबों से हों ना-ख़ुश पर ज़नान-ए-मिस्र से
है ज़ुलेख़ा ख़ुश कि महव-ए-माह-ए-कनआँ हो गईं
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
कब तक मैं रहूँ महव-ए-सुकूत-ए-शब-ए-हिज्राँ
ऐ क़ल्ब-ए-हज़ीं नाला बपा कर कि सहर हो