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ग़ज़ल
टूटा-फूटा ही सही फिर भी कशिश रखता हूँ
मुझ से महज़ूज़ तो हो लो कि खिलौना हूँ मैं
अब्दुल्लाह कमाल
ग़ज़ल
न क्यों हूर-ए-जिनाँ के ज़िक्र से महज़ूज़ हो वाइ'ज़
ये उस के तौसन-ए-दिल के लिए महमेज़ है साक़ी
क़ाज़ी गुलाम मोहम्मद
ग़ज़ल
हम तो अपने दर्द और ग़म में निपट महज़ूज़ हैं
हम को क्या इस बात से रहता है गर आलम ख़ुशी