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ग़ज़ल
ख़ुदा भी जानता है ख़ूब जो मक्कार बैठे हैं
हरम में सर-निगूँ कुछ क़ाबिल-ए-फ़िन्नार बैठे हैं
डॉक्टर आज़म
ग़ज़ल
थे हम भी गुनहगार पर इक ज़ाहिद मक्कार की ज़िद
बाज़ार में बिकती हुई सलमाओं से आगे निकल आए
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
थे हम भी गुनहगार हर इक ज़ाहिद-ए-मक्कार की ज़िद में
बाज़ार में बिकती हुई सलमाओं से आगे निकल आए
क़तील शिफ़ाई
ग़ज़ल
इस दौर में जीना है तो मक्कार का जीना
ये बात हक़ीक़त है तो मर क्यों नहीं जाते
पंडित विद्या रतन आसी
ग़ज़ल
रह के मक्कारों में मक्कार हुई है दुनिया
मेरे दुश्मन की तरफ़-दार हुई है दुनिया
मोहसिन आफ़ताब केलापुरी
ग़ज़ल
मगर लिखवाए कोई उस को ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुब्ह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
'फ़ैज़-आलम-बाबर' ख़ुद भी यार है जाने किस किस का
यारों को मक्कार समझने वाले मुझ से दूर रहें
फ़ैज़ आलम बाबर
ग़ज़ल
दोश-ए-मक्कार उठाए जो जनाज़ा मेरा
इस से बेहतर है कि मक़्तल में पड़ा रहने दे
सय्यद ग़ाफ़िर रिज़वी फ़लक छौलसी
ग़ज़ल
है कितनी ख़ुद-ग़रज़ मक्कार दुनिया हम ने देखा है
ख़ुद अपनी ही तबाही का तमाशा हम ने देखा है
Meem Sheen Najmi
ग़ज़ल
उसे हम मानते हैं तो ज़माने-भर से अच्छा है
मगर अच्छे भी अपने क़ौल से ऐ यार फिरते हैं
सफ़ी औरंगाबादी
ग़ज़ल
क्या कहूँ मैं इस को आँखों ने दिए हैं जो फ़रेब
फ़न्न-ए-मक्कारी में ये मक्कार दोनों एक हैं
जोशिश अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
उस के दिल में नीम गोली, शहद बातों में रखे
पूछते क्या हो मियाँ! मक्कार दुनिया हो गई