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ग़ज़ल
शिकायत है मुझे या रब ख़ुदावंदान-ए-मकतब से
सबक़ शाहीं बच्चों को दे रहे हैं ख़ाक-बाज़ी का
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ये फ़ैज़ान-ए-नज़र था या कि मकतब की करामत थी
सिखाए किस ने इस्माईल को आदाब-ए-फ़रज़ंदी
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
हज़रत-ए-इश्क़ के मकतब में है ता'लीम कुछ और
याँ लिक्खा याद रहे और न पढ़ा याद रहे
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
किस को मालूम है हंगामा-ए-फ़र्दा का मक़ाम
मस्जिद ओ मकतब ओ मय-ख़ाना हैं मुद्दत से ख़मोश
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
हो गया तिफ़्ली ही से दिल में तराज़ू तीर-ए-इश्क़
भागे हैं मकतब से हम औराक़-ए-मीज़ाँ छोड़ कर
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़
ग़ज़ल
है कुशाद-ए-ख़ातिर-ए-वा-बस्ता दर रहन-ए-सुख़न
था तिलिस्म-ए-क़ुफ़्ल-ए-अबजद ख़ाना-ए-मकतब मुझे
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
तब से आशिक़ हैं हम ऐ तिफ़्ल-ए-परी-वश तेरे
जब से मकतब में तू कहता था अलिफ़ बे ते से
इंशा अल्लाह ख़ान इंशा
ग़ज़ल
अज्ञात
ग़ज़ल
होते हैं जाते ही मकतब में परी-रू ख़ूँ-रेज़
क्या ये जल्लादों को उस्ताद किया करते हैं
इमाम बख़्श नासिख़
ग़ज़ल
मकतब की आशिक़ी भी तारीख़-ए-ज़िंदगी थी
फ़ाज़िल था घर से मजनूँ लैला पढ़ी लिखी थी