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ग़ज़ल
लफ़्ज़ ख़ुद हम ने गढ़े इज़हार-ए-उल्फ़त के लिए
वस्ल की तकमील है मम्नून-ए-तश्कील-ए-लिसाँ
फ़हीम आज़मी
ग़ज़ल
हो दर-ए-मय-ख़ाना पर बे-दुख़्त-ए-रज़ बैठे हुए
हज़रत-ए-'ममनूँ' यही क्या शेवा-ए-अशराफ़ था
ममनून निज़ामुद्दीन
ग़ज़ल
मानिंद-ए-हबाब आप किया इश्क़ ने 'ममनूँ'
पाया न निशाँ जामा में अपने कहीं तन का
ममनून निज़ामुद्दीन
ग़ज़ल
मुस्लिम अंसारी
ग़ज़ल
होती है नींद में कहीं तश्कील-ए-ख़द्द-ओ-ख़ाल
उठता हूँ अपने ख़्वाब का चेहरा उठा के मैं
दिलावर अली आज़र
ग़ज़ल
भूली-बिसरी बातों से क्या तश्कील-ए-रूदाद करें
हम को तो कुछ याद नहीं है आप ही कुछ इरशाद करें
अब्दुल हमीद अदम
ग़ज़ल
क्यों हो मम्नून-ए-क़मर पुर-नूर पैमाने की रात
रोज़-ए-रौशन से भी रौशन-तर है मयख़ाने की रात
सय्यद हुसैन अली जाफ़री
ग़ज़ल
रहेंगे हश्र तक मम्नून-ए-एहसान-ए-दिल-आज़ारी
ख़ुलूस-ए-इश्क़ पर ये क़ीमती इनआ'म क्या कहिए