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ग़ज़ल
मरने वालो आओ अब गर्दन कटाओ शौक़ से
ये ग़नीमत वक़्त है ख़ंजर कफ़-ए-क़ातिल में है
बिस्मिल अज़ीमाबादी
ग़ज़ल
मिरे कहने से होगी तर्क-ए-रस्म-ओ-राह ग़ैरों से
बजा है आप ने कहने मिरे माने बहुत से हैं
क़मर जलालवी
ग़ज़ल
न आई सतवत-ए-क़ातिल भी माने मेरे नालों को
लिया दाँतों में जो तिनका हुआ रेशा नियस्ताँ का
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
हिजाबात-ए-तअय्युन माने-ए-दीदार समझा था
जो देखा तो नक़ाब-ए-रू-ए-जानाँ मेरी हस्ती है