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ग़ज़ल
तिश्नगी के भी मक़ामात हैं क्या क्या यानी
कभी दरिया नहीं काफ़ी कभी क़तरा है बहुत
कृष्ण बिहारी नूर
ग़ज़ल
तमन्नाओं के तूफ़ानों ने फ़ुर्सत ही न मिलने दी
मक़ामात-ए-निगाह-ओ-दिल न तुम समझे न हम समझे
कैफ़ मुरादाबादी
ग़ज़ल
न जाने कल हों कहाँ साथ अब हवा के हैं
कि हम परिंदे मक़ामात-ए-गुम-शुदा के हैं
राजेन्द्र मनचंदा बानी
ग़ज़ल
बे-ख़ुदी गुम-गश्तगी सुक्र-ओ-तहय्युर महवियत
कुछ मक़ामात और भी पड़ते हैं मयख़ाने के बा'द
रियाज़ ख़ैराबादी
ग़ज़ल
कोई महरम है कि महरूम हमें क्या मालूम
उन से पूछो जो मक़ामात-ए-नज़र जानते हैं