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ग़ज़ल
सौ दश्त समुंदर छानो पर आते रहो क़र्या-ए-दिल तक भी
बैरूनी हवा के झोंकों में इक मौज-ए-मक़ामी रहने दो
अब्दुल अहद साज़
ग़ज़ल
मक़ाम-ए-गुफ़्तुगू क्या है अगर मैं कीमिया-गर हूँ
यही सोज़-ए-नफ़स है और मेरी कीमिया क्या है
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
बात ये है कि सुकून-ए-दिल-ए-वहशी का मक़ाम
कुंज-ए-ज़िंदाँ भी नहीं वुसअ'त-ए-सहरा भी नहीं