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ग़ज़ल
बदन के दोश पे साँसों का मक़बरा मैं हूँ
ख़ुद अपनी ज़ात का नौहा हूँ मर्सिया मैं हूँ
ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर
ग़ज़ल
शाह-ए-जहाँ ने ताज बनवा कर दिया पैग़ाम ये
अब बन चुका है मक़बरा वो घर तिरा ये घर मिरा
धर्मेन्द्र तिजोरी वाले आज़ाद
ग़ज़ल
वो नगर तो कब का उजड़ गया हम उसी नगर से तो आए हैं
कहीं मक़बरा था ख़ुलूस का तो कहीं वफ़ा का मज़ार था
जावेद वशिष्ट
ग़ज़ल
रात है या संग-ए-मरमर का मुक़द्दस मक़बरा
जिस के अंदर दफ़्न है दो माहताबों का बदन
प्रेम वारबर्टनी
ग़ज़ल
अब दिल हमारा बन गया ख़ुशियों का मक़बरा
है दफ़्न हर ख़ुशी इसी ख़ाना-ख़राब में