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ग़ज़ल
दीदा-ए-बे-रंग में ख़ूँ-रंग मंज़र रख दिए
हम ने इस दश्त-ए-तपाँ में भी समुंदर रख दिए
बख़्श लाइलपूरी
ग़ज़ल
तमाशा-गाह है या आलम-ए-बे-रंग-ओ-बू क्या है
मैं किस से पूछने जाऊँ कि मेरे रू-ब-रू क्या है
ज़िया फ़ारूक़ी
ग़ज़ल
क्या मुहीत-ए-मय-ए-बे-रंग में तूफ़ाँ आया
जोश-ए-रंग अंजुमन-ए-नाज़ से बाहर गुज़रा