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ग़ज़ल
सूरज आँखें खोल रहा है सूखे हुए दरख़्तों में
साए राख बने जाते हैं जीते हुए दरख़्तों में
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
ग़ज़ल
बड़ी पुर-फ़न निगाह-ए-शर्मगीं मालूम होती है
ग़ज़ब ढाती है लेकिन दिल-नशीं मालूम होती है
साहिर सियालकोटी
ग़ज़ल
क्या क्या न किया इश्क़ में क्या क्या न करेंगे
लेकिन ग़म-ए-जानाँ तुझे रुस्वा न करेंगे