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ग़ज़ल
तअ'ज्जुब उन के लिए मर्ग-ए-ना-गहानी का
जो ज़िंदगी के मराहिल से कम गुज़रते हैं
अहसन रिज़वी दानापुरी
ग़ज़ल
मैं सख़्त-जान था ऐसा कि चीख़ भी न सका
फ़ुग़ाँ फ़ुग़ाँ थी जहाँ मर्ग-ए-ना-गहानी पर
सिद्दीक़ मुजीबी
ग़ज़ल
दम-ए-आख़िर तसव्वुर उन का आया है 'शफ़क़' हम को
क़यामत तक ये मर्ग-ए-ना-गहानी याद रक्खेंगे
ऊषा शफ़क़
ग़ज़ल
इस तरह घुट घुट के मरने से तो बेहतर था कि लोग
एक ही दिन काश मर्ग-ए-ना-गहानी माँगते