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ग़ज़ल
दिल जिगर शाहों के आगे किस लिए ले जा रहे हैं
रुत क़सीदों की है और हम मरसिए ले जा रहे हैं
शुजा ख़ावर
ग़ज़ल
नज़्में कहाँ हैं फ़लसफ़े मंज़ूम हैं तमाम
ग़ज़लें कहाँ हैं इश्क़ के सब मरसिए हैं यार
हामिद इक़बाल सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
बे-इख़्तियार रोते हैं पढ़ पढ़ के मरसिए
उल्फ़त में तेरी गर ये मिरा पर्दा-दर नहीं