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ग़ज़ल
इश्क़ से तेरे बढ़े क्या क्या दिलों के मर्तबे
मेहर ज़र्रों को किया क़तरों को दरिया कर दिया
हसरत मोहानी
ग़ज़ल
इतने ऊँचे मर्तबे तक तुझ को पहुँचाएगा कौन
मैं हुआ मुंकिर तो फिर तेरी क़सम खाएगा कौन