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ग़ज़ल
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी
ग़ज़ल
पस-ए-दफ़्न भी न सुकूँ मिला तह-ए-ख़ाक हसरत-ए-इश्क़ को
कभी सब्ज़ा बन के लहक उठी कभी फूल बन के महक गई
वक़ार बिजनोरी
ग़ज़ल
लताफ़तों के नज़ाकतों के 'अजीब मज़मून हैं चमन में
सबा ने झटका है अपना दामन मसक गई है कली की चोली
अकबर इलाहाबादी
ग़ज़ल
तुम्हारी बख़िया-गरी मुसल्लम मगर कहाँ तक रफ़ू करोगे
मिरे गरेबाँ का हाल ये है जगह जगह से मसक रहा है