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ग़ज़ल
झील की गहरी ख़ामोशी भी होती है मश्कूक मगर
दरिया रुस्वा मौजों की तुग़्यानी से हो जाता है
भारत भूषण पन्त
ग़ज़ल
हम वफ़ादारों में हैं उस के मगर मश्कूक हैं
इक न इक दिन उस की महफ़िल से निकाले जाएँगे
बेकल उत्साही
ग़ज़ल
मो'तबर कितना भी हो हर वास्ता मश्कूक है
जो तसव्वुर में लिखा वो ख़त भी पहुँचाया नहीं