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ग़ज़ल
जावेद अख़्तर
ग़ज़ल
तू हुमा का है शिकारी अभी इब्तिदा है तेरी
नहीं मस्लहत से ख़ाली ये जहान-ए-मुर्ग़-ओ-माही
अल्लामा इक़बाल
ग़ज़ल
ख़िलाफ़-ए-मस्लहत मैं भी समझता हूँ मगर नासेह
वो आते हैं तो चेहरे पर तग़य्युर आ ही जाता है
जोश मलीहाबादी
ग़ज़ल
झूट क्यूँ बोलें फ़रोग़-ए-मस्लहत के नाम पर
ज़िंदगी प्यारी सही लेकिन हमें मरना तो है
साहिर लुधियानवी
ग़ज़ल
ऐ अदू-ए-मस्लहत चंद ब-ज़ब्त अफ़्सुर्दा रह
करदनी है जम्अ' ताब-ए-शोख़ी-ए-दीदार-ए-दोस्त