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ग़ज़ल
चलो मोहब्बत की बे-ख़ुदी के हसीन ख़ल्वत-कदे में बैठें
अजीब मसरूफ़ियत रहेगी न ग़ैर होगा न यार होगा
अब्दुल हमीद अदम
ग़ज़ल
ऐ मिरी मसरूफ़ियत मुझ को ज़रूरत है तिरी
इक पुराने ग़म का सर फिर से कुचलना है मुझे
स्वप्निल तिवारी
ग़ज़ल
जहाँ मसरूफ़ियत की तेग़ मैं ने हाथ से रक्खी
निहत्ता देख कर यादों के सब लश्कर निकल आए
महशर आफ़रीदी
ग़ज़ल
मसरूफ़ियत दोनों की ऐसी मिल नहीं पाते मगर
वो हर तरह से पास है इक जिस्म ही तो है जुदा