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ग़ज़ल
मता-ए-हुस्न-ओ-उल्फ़त पर यक़ीं कितना था दोनों को
यहाँ हर चीज़ फ़ानी है न तुम समझे न हम समझे
सबा अकबराबादी
ग़ज़ल
दिल की मताअ' तो लूट रहे हो हुस्न की दी है ज़कात कभी
रोज़-ए-हिसाब क़रीब है लोगो कुछ तो सवाब का काम करो
इब्न-ए-इंशा
ग़ज़ल
वो जिस ने छीनी मता-ए-हयात ऐ 'बेबाक'
हम उस से भी तो तअ'ल्लुक़ बहाल रखते हैं
शान-ए-हैदर बेबाक अमरोहवी
ग़ज़ल
'फ़ज़ा' चराग़-ओ-शफ़क़ दोनों रहज़नों की मताअ'
जो ख़ैर चाहो तो रस्ते में शाम मत करना