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ग़ज़ल
तुम्ही से तोहमत-ए-आलम को निस्बतें मौसूम
तुम्हें को कहते हैं सब लोग सब से अच्छी क्यूँ
किश्वर नाहीद
ग़ज़ल
तुम्हारे नाम पर मौसूम कर देते हैं सब 'राज़ी'
कभी हम लग़्ज़िश-ए-साग़र को मस्ताना नहीं कहते