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ग़ज़ल
महफ़िल महफ़िल अपना तअल्लुक़ आज है इक मौज़ू-ए-सुख़न
कल तक तर्क-ए-तअल्लुक़ के भी अफ़्साने बन जाएँगे
बशर नवाज़
ग़ज़ल
आ कि मौज़ू-ए-ग़ज़ल को ढूँढती है हर निगाह
नग़्मा-ए-मुत्रिब बला-ए-गोश है तेरे बग़ैर